Thursday, September 5, 2019

‘घड़ा पाप का भर रहा’ एक विलक्षण तेवर-शतक*विश्वप्रताप भारती





‘घड़ा पाप का भर रहा’  एक विलक्षण तेवर-शतक
[कविता में तेवरी प्रयोगसाहित्य के लिए एक सुखद अनुभव]
*विश्वप्रताप भारती
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                                श्री रमेशराज छंदबद्ध कविता के सशक्त हस्ताक्षर हैं। तेवरी लेखनएवं विचार को लेकर रस की निष्पत्ति पर वैचारिक विवेचनमें उनकी एक अलग पहचान है। रमेशराज ने ग़ज़ल विधा में नये-नये तेवरों को ग़ज़ल न कहकर तेवरी बताकर हिन्दी साहित्य में विधागत विमर्श को आगे बढ़ाया है। तेवरी विधा को पहचान और स्थापन दिलाने के लिए तेवरीपक्ष का संपादन-प्रकाशन किया, जिससे वे लगातार जूझते रहे। हिन्दी की प्रगतिशील-जनवादी कविता में जिला अलीगढ़ से बहुत नाम आते हैं, उनमें रमेशराज शीर्षस्थ हैं। ये कहना गलत न होगा कि आलोचकों ने उनकी पुस्तकें तो पढ़ी लेकिन उनका नाम लेने से, उनकी चर्चा करने से कतराते रहे। चूंकि तेवरी पर आलोचक चुप्पी साधे रहे। कुछ आलोचकों ने तो तेवरी लिखने वालों को तेवरबाज तक कह डाला।
                रमेशजी अपनी लम्बी तेवरी पुस्तक- घड़ा पाप का भरा[तेवर शतक] के माध्यम से एक बार फिर चर्चा में है। उनकी तेवरियों को पढ़कर हर एक व्यक्ति ये महसूस कर सकता है, ‘अरे ये तो हमारे मन की बात कह दी।शायद लेखक के लिखने की यही सफलता है।
                सामान्यतः कविता दूसरों को कुछ बताने के लिए लिखी जाती है जो मानवीयता के पक्ष की मुखर आवाज बनती है। मानवीयता के स्तर पर कविता में जो भाव आते हैं, वे अद्भुत होते हैं। रमेशजी की कविता [तेवरी] में ये भाव एक बड़ी सीमा तक विद्यमान हैं-
                ‘‘ ‘तेरे भीतर आग है- लड़ने के संकेत
                बन्धु किसी पापी के सम्मुख, तीखेपन की मौत न हो।
                जन-जन की पीड़ा हरे, जो दे धवल प्रकाश
जो लाता सबको खुशहाली, उस चिन्तन की मौत न हो।’’
                वस्तुतः आज आमआदमी की जिन्दगी इतनी बेबस और उदास हो गयी है कि वह समय के साथ से, जीवन के साथ से छूटता जा रही है। संवेदनाशून्य समाज की स्थिति कवि को सर्वाधिक पीडि़त करती है-
                ‘‘कायर ने कुछ सोचकर ली है भूल सुधार
                डर पर पड़ते भारी अब इस संशोधन की मौत न हो।’’
                समाज में जो परिवर्तन या घटनाएँ हो रही हैं, वे किसी एक विषय पर केन्द्रित नहीं हैं। घटनाओं के आकार बदले हैं, प्रकार बदले हैं। इन घटनाओं के माध्यम से नयी संस्कृति जन्म ले रही है तो कहीं लूट, हत्या, चोरी, बलात्कार, घोटाला, नेताओं का भृष्टाचार, सरकारी कर्मचारियों की रिश्वतखोरी, कानूनी दाँवपेंच का दुरुपयोग जैसी घटनाएँ सामने आ रही है-
                ‘‘लोकपाल का अस्त्र ले, जो उतरा मैदान
                करो दुआएँ यारो ऐसे रघुनन्दन की मौत न हो।
                नया जाँच आयोग भी जाँच करेगा खाक
                ये भी क्या देगा गारण्टी कालेधन की मौत न हो’’
                कविता में भोगे हुए यथार्थ की लगातार चर्चा हुई है, लेकिन उसके चित्र तक। दलित लेखकों ने इस सीमा को तोड़ा है। दलित लेखकों ने अपने लेखन में जहाँ समस्याओं को दिखाया है तो वहीं उनका समाधान भी बताया है। रमेशजी दलित नहीं हैं। उनका जन्म विपन्न परिवार में हुआ, इसलिए दलितों के प्रति व्यक्तिगत तौर पर उनकी पीड़ा घनीभूत है। निःसंदेह आज दलितों ने निरन्तर प्रयास के बावजूद अपना जीवन-स्तर बदला है। अपने लिए अनंत संभावनाओं का आकाश तैयार कर लिया है परन्तु समाज में अभी भी कुछ ऐसा है जिससे लेखक आहत है-
                पूँजीपति के हित यहाँ साध रही सरकार
                निर्बल दलित भूख से पीडि़त अति निर्धन की मौत न हो।
                लिया उसे पत्नी बना, जिसका पिता दबंग
                सारी बस्ती आशंकित है अब हरिजन की मौत न हो।’’
                कवि ने आजादी की लड़ाई के माध्यम से राजनीति के दोगलेपन पर तीखा प्रहार किया है-
                झाँसी की रानी लिए जब निकली तलवार
                कुछ पिट्ठू तब सोच रहे थे प्रभु लंदन की मौत न हो
                कथा सम्राट मुंशी प्रेमचन्द्र के उपन्यास गोदान के युवा पात्र                      गोबरके माध्यम से कवि ने करारी चोट की है। ऐसे गोबर आज हर जगह मिल जायेंगे जो समाज और देश के विकास के लिए चिन्तित हैं-
                झिंगुरी’, दातादीनको जो अब रहा पछाड़
                होरीके गुस्सैल बेटे गोबरधनकी मौत न हो।
                हिन्दी साहित्य में नये-नये प्रयोग होते रहे हैं आगे भी होते रहेंगे। कविता में तेवरी प्रयोगसाहित्य के लिए एक सुखद अनुभव है जो सामाजिक सन्दर्भों से गुजरते हुए समसामयिक युगबोध तक ले जाता है। तेवरी अपना काम बखूबी कर रही है। तेवरीकार के शब्दों में-
                ‘‘इस कारण ही तेवरी लिखने बैठे आज
                किसी आँख से बहें न आँसू, किसी सपन की मौत न हो।’’
                स्पष्ट है, तेवरी नयी सोच, नयी रोशनी लेकर आई है। प्रस्तुत तेवरी शतक में सभी रचनाएँ आँखें खोलने वाली हैं। विलक्षण और अद्भुत। आशा है लेखक तेवरी विधा को स्वतंत्र विधा के रूप में अपनायेंगे, और बढ़ायेंगे।
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-विश्वप्रताप भारती
बरला अलीगढ़ [उ.प्र.]

तेवरीकार रमेशराज, राजर्षि जनक की भूमिका में *योगेन्द्र शर्मा



तेवरीकार रमेशराज, राजर्षि जनक की भूमिका में
  *योगेन्द्र शर्मा

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        कविवर निराला का कथन है-“कविता बहुजीवन की छवि है।“ तेवरी भी माँ सीता की तरह, भूमि से ही जन्मी है, और रमेशराज, राजर्षि जनक की भूमिका में हैं। तेवरीकार, रमेशराज की कविता मूलतः आमआदमी की पीड़ा, असंतोष, क्षोभ व आक्रोश की कविता है।
                                                समीक्ष्य पुस्तक में, कवि ने नन्दलाल-श्री कृष्ण को शासक, व गोपियों को जनता जनार्दन के प्रतीक के रूप में लिया है। उनकी कविता का रंग, व्यवस्था-विरोध का है। दो तेवर दर्शनीय हैः-
हम तो उनके सामने, हुए बहुत बलहीन
सब की बाँह मरोड़ कर खुश तो हैं नन्दलाल? बताओं कुछ तो ऊधो?
जित घायल हर भाव हैं, घाव भरा हर चाव
नीबू वहाँ निचोड़ कर खुश तो हैं नन्दलाल? बताओं कुछ तो ऊधो?
                इस उपभोक्तावाद व भूमण्डलीकरण के युग में निर्धन और धनहीन व धनवान और अधिक धनवान हो गया है। कवि अपनी लेखनी के माध्यम से हृदयस्पर्शी बेवाक चित्रा प्रस्तुत करता है-
रोजगार नित खोजते, नन्हे-नन्हे हाथ
अब न पकड़ते तितलियाँ गोकुल रहे उदास। बसी हर मन में पीड़ा।
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फटी रजाई, कम रूई, हुई खाट बेकार
जाड़े में मेहमान की रही समस्या रोज। समस्या हल कर दीजे।
                यूँ तो कागजों पर सरकार ने कई जनकल्याण की योजनाएं बनायी हैं, ‘अच्छ दिनोंकी अगवानी में। परन्तु लाल-फीताशाही व भ्रष्टाचार के कारण, आम जनता उनके लाभ से महरूम रह जाती है। तेवरीकार के व्यंग्य की धार दर्शनीय है-
सरकारी अफसर कहै, इस सरका री नोट
ऊधो सारा देश है, रिश्वत ला की ओर। श्याम का अजब सुशासन।
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डकैतियाँ तो पड़ गयी, पहुँच न पायी चौथ
इस पर थानेदार ने डाकू डाँटे रोज। मरें हम कब तक ऊधो?
                रमेशराज की कविता का तानाबाना सामान्यतया व्यंग्य है। व्यंग्य भी ऐसा कि जिस पर वार किया हो, वह तिलमिला जाये। तेवरी दर्शनीय हैः-
अब फिर आये हो यहाँ पाँच साल के बाद
तुम वोटों की अर्चना, ऊधो जानो खूब। बड़े छलिया हो ऊधो।
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कुर्सी की उनकी चढ़ी, ऊधो ऐसी भाँग
मदमाते से डोलते, अब वे श्याम न श्याम। वोट हम क्यों दे उनको?
                तेवरीकार की तेवरी, जनाक्रोश की संवाहक, दोधारी तलवार प्रतीत होती है-
ढाई आखर की डगर आज भूल कर श्याम
सच के व्याख्याता बनें, वेदों के विद्वान। प्रेम में बसी सियासत।
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जनपथ के रिसते हुए, छुए न कोई घाव
राजपथों से कब, उठे, भले दया के बोल? तल्खियाँ इसीलिये हैं?
    गरीब की बेटी के पक्षधर, रमेशराज की तल्खियों केवल राजनैतिक गलियारों से ही नहीं, समकालीन व्यवस्था क प्रतिे भी हैं-
यूँ तो हुई जवान, निर्धन के घर जनम ले
रही कुँआरी ही खुशी, पीले हुए न हाथ, दुखों ने ऐसे घेरा।
                तेवरीकार, प्रतीकों के माध्यम से आज के रहनुमाओं पर व्यंग्य-प्रहार करता चलता है-
फूलों से मकरन्द गुम, गायब रंग-सुगन्ध
पात-पात पर व्यंग्य-सा मनमोहन का प्यार। मुबारक उनको गद्दी।
                तेवरी, अपने शैशव काल में प्रायः कथित ग़ज़ल के शिल्प पर लिखी गयी थी। यद्यपि, तेवरीकार ग़ज़ल की रवायतों को समय-समय पर तोड़ते रहे थे। यथा, तेवरी में अन्तिम शेर, अर्थात मक्ता शेर न कहना। यथा, ग़ज़ल की प्रचलित बहरों से बाहर निकलना। परन्तु तेवरी आन्दोलन के प्रवर्तक रमेशराज ने अन्य छन्दों, यथा, वर्णिक आदि, अन्य छन्दों में भी तेवरी की रचना की, जो  अपेक्षाकृत कठिन कार्य था।
                शिल्पगत प्रयोगों की कड़ी में रमेश भाई ने, आनुप्रासिक तेवरी,  व यमकदार तेवरी की रचना कर अपनी काव्य प्रतिभा के दर्शन कराये हैं-
पजरी पंकज-पाखुरी, पल-पल प्रकटे पीर
नर-नारी नन्दित नहीं, नयन-नयन नित नीर। चुभन-सी मन के भीतर।
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जिये न हरि मधु प्रेममय सुखद हवा की ओर
हैरत! है  रत आज भी मन सत्ता की ओर। श्याम का अजब सुशासन।
                तेवरीकार रमेशराज का तेवरी शतक ऊधौ कहियो जाय’, अपने काव्यात्मक लालित्य, सामाजिक सरोकारों के कारण, हमें दुष्यंत कुमार जैसे कवि की याद दिलाता रहेगा। इस अनूठी काव्यकृति हेतु, तेवरीकार को साधुवाद, बधाई।

समीक्ष्य पुस्तक-              
ऊधौ कहियो जाय [तेवरी शतक]
कवि-रमेशराज
सार्थक सृजन प्रकाशन, 15@109, ईसानगर,
निकट थाना सासनीगेट, अलीगढ़-202001          
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समीक्षक-योगेन्द शर्मा
सम्पर्क-3@29सी लक्ष्मीबाई मार्ग, रामघाट रोड, अलीगढ़।
मोबाइल-09897410320,09760002274