Wednesday, July 20, 2016

डॉ. गोपाल बाबू शर्मा की कविता-यात्रा +रमेशराज

डॉ. गोपाल बाबू शर्मा की कविता-यात्रा

+रमेशराज
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    प्रसिद्ध व्यंग्यकार और जाने-माने कवि डॉ. गोपाल बाबू शर्मा विलक्षण प्रतिभा के धनी हैं। कविता उनके लिए मनोरंजन का एक साधनमात्र नहीं, बल्कि सामाजिक सरोकारों, शोषित-लाचारों की दुर्दशा, दयनीयता और घृणित व्यवस्था से उत्पन्न अराजकता, विसंगति और असमानता को भी प्रमुखता के साथ अपना विषय बनाकर चलती है। जहां भी जो चीज खलती है, कवि उसके विरुद्ध खड़ा होता है और वसंत या खुशहाली के सपने बोता है।
    डॉ. गोपाल बाबू शर्मा ने सन् 1948-49 के आसपास कविताएं लिखना प्रारम्भ किया। उनकी प्रारम्भिक कविताएं हाथरस से प्रकाशित दैनिक पत्र नागरिकमें छपीं। तत्पश्चात् विधिवत् रूप से उनका गीत विशाल भारत[कलकत्ता] से सित.-अक्टू-1953 अंक में प्रकाशित हुआ। प्राप्त सामग्री के आधार पर व्यंग्य-लेखन हम मातमपुर्सी में गये[साप्ता. हिन्दुस्तान 21 मई सन्-1961] से प्रारम्भ किया।
    कविकर्म के प्रारम्भिक दौर में कवि-सम्मेलनों की लोकप्रियता के परिणामस्वरूप कविताओं में हास्य-व्यंग्य का भी समावेश हुआ। उनकी प्रथम हास्य-कविता नोक-झोंकमासिक [आगरा] में कल शादी वाले आये थेशीर्षक से सित.-1955 अंक में प्रकाशित हुई।
    कविता के कल्पना-लोक, रोमानी संस्कार और सतही व्यापार से कवि अधिक समय तक न बंधा रह सका। उसने जीवन की सच्चाइयों और युगधर्म से अपना नाता जोड़ना शुरू किया। सरस्वती’, ‘नवनीत’, ‘आजकल’, ‘नयापथ’, ‘जनयुग’, ‘साप्ता. हिन्दुस्तान’, ‘कादिम्बनी’, ‘सरिताआदि के माध्यम से जो कविताएं प्रकाश में आयीं, उनमें सामाजिक विकृतियों, विसंगतियों और कुव्यवस्था के प्रति विरोध के स्वर पूरी तरह मुखरित हुए।
    कविता के इस रूप के साथ-साथ, एक दूसरा रूप भी कवि ने रखा-‘बाल कविता’ का, जो कि नवभारत टाइम्स’, ‘बालसखा’, ‘नन्दन’, ‘परागआदि के माध्यम से पाठकों के सम्मुख आया।
डॉ. गोपाल बाबू शर्मा की अब तक, ‘जिन्दगी के चांद-सूरज[1992 ई.] कूल से बंधा है जल[1995 ई.] समर्पित है मन’  [1996 ई.] दूधों नहाओ, पूतों फलो [1998 ई.] धूप बहुत, कम छांव[1997 ई.] सरहदों ने जब पुकारा[2000 ई.] कहेगा आईना सब कुछ[2000 ई.] मोती कच्चे धागे में[2004 ई.] सूख गये सब ताल[2004 ई.] नाम से नौ काव्य-कृतियां सामने आयी हैं।
    ‘जिन्दगी के चांद-सूरजकाव्य-कृति में प्रणय-गीत, प्रगति-गीत, ग़ज़लें, मुक्तक, बालगीत तथा हास्य-व्यंग्य गीत सम्मिलित हैं। कवि-सम्मेलनों में बेहद लोकप्रिय हुईं दो कविताएं दो चोटियांतथा लक्ष्मण हुये थे किसलिए बेहाशभी इस कृति में संकलित हैं।
    ‘कूल से बंधा है जल’  काव्यकृति में तुम्हें वह प्यार कैसे दूं’, ‘मूर्गा बोला कुक्कड़ कूँ’, ‘ गुलछर्रे उड़ाते जाइए’, शीर्षकों के अन्तर्गत क्रमशः प्रेम-गीत, प्रगतिवादी विचारधारा के गीत, बाल कविताएं तथा हास्य-व्यंग्य कविताएं प्रकाशित हैं। शिल्प की दृष्टि से शुद्ध छन्दों के प्रयोग इनकी विशेषताएं हैं।
    ‘समर्पित है मनमुक्तकों का संग्रह है, जिनकी संख्या 118 है। ये मुक्तक प्रेम, सामाजिक-विसंगति, अपसंस्कृति, जीवन-मूल्यों की गिरावट आदि विषयों पर अच्छी तुक-लय और छंद के साथ अपनी ओजमय उपस्थिति दर्ज कराते हैं।
    ‘दूधो नहाओ, पूतों फलोकाव्य-कृति हास्य-व्यंग्य कविताओं का संकलन है, जिसके कथन में मौलिकपन है। समाज, राजनीति, साहित्य, शिक्षा, नेता, पुलिस, टेलीफोन, फिल्म, भ्रष्टाचार, चन्दा-उगाही आदि की विसंगतियों पर व्यंग्य कसतीं ये कविताएं एक तरफ जहां मन को गुदगुदाती हैं, हंसाती हैं, वहीं यकायक तमाचे-से भी जड़ जाती हैं। कवि के कथन का यह अंदाज बहुत ही लुभावना और प्यारा है।
    ‘धूप बहुत, कम छांवकाव्यकृति में डा. गोपालबाबू शर्मा के दो सौ दोहे और 150 हाइकु संकलित हैं, जिनमें वर्ण्य विषय विविध हैं और सहज सम्प्रेषणशीलता का गुण विद्यमान है। सभी हाइकु अन्त्यानुप्रासिक प्रयोगों से युक्त हैं।
    कवि की भाषा सहज-सरल है, किन्तु अर्थ-विस्तार और गूढ़ता लिये हुए है। उदाहरण के रूप में कुछ दोहे प्रस्तुत हैं-
हंस दुःखी, भूखे मरें, कौवे खाते खीर।
आज समय के फेर से उलटी है तस्वीर।।
सज्जन शोषित सब जगह, सहते अत्याचार।
पूजा के ही नारियल बिकते बारम्बार।।
गंगाजल मैला हुआ, चलती हवा खराब।
शोर-शराबा बढ़ गया, कांटा हुआ गुलाब।।
    हाइकु पांच, साल, पांच अक्षरों में व्यवस्थित जापानी छंद है। इस छंद के अन्तर्गत आजकल खूब कूड़ा-कचरा खप रहा है। हाइकुके नाम पर जो कुछ छप रहा है, उसमें अर्थ की लय भंग है, किन्तु डा. गोपालबाबू शर्मा के हाइकुओं में कुछ दूसरा ही रंग है। ये हाइकु कथ्य और शिल्प में  बेहद असरदार हैं |
        ‘सरहदों ने जब पुकारानामक काव्यकृति में बांगलादेश तथा कारगिल युद्ध के संदर्भ में भारत-पाक युद्ध सम्बन्धी ऐसी कविताएं हैं, जिनमें कवि भारत के शहीदों के प्रति तो श्रद्धानत हैं, किन्तु भारत की नौकरशाही, नेताओं और धनकुबेरों पर तीखे व्यंग्यवाण छोड़ता है। यहां तक कि वह भ्रष्ट अफसरों की बीवियों को भी नहीं छोड़ता है, जो भारत-पाक युद्ध के समय देशभक्ति के नाम पर सभाएं करती हैं, चंदा वसूलती हैं और उसे चट कर जाती हैं। शहीदों के ताबूतों में दलाली खाने वालों या पराजय को विजय की तरह भुनाने वालों पर, इस कृति में बड़े ही तीखे व्यंग्य किये गये हैं।
    ‘कहेगा आईना सब कुछकाव्यकृति में 118 मुक्तक हैं, जो कि विविध विषयों पर रचे गये हैं। इन मुक्तकों के माध्यम से कवि का मानना है कि भजन-कीर्तन या पूजा-पाठ, पापों को ढकने का साधन हैं। कवि का मानना है कि राम और रहीम, मंदिर या मस्जिद में नहीं, मन में बसते हैं-
भजन कीर्तन पूजा हैं सब, पापों को ढकने के साधन
मंदिर-मस्जिद में मत ढूंढों, राम रहीम इसी मन में हैं।
कवि खुलकर अपनी बात यूं रखता है-
काट रहा है आरी बनकर, जज्बातों को अहम् हमारा
अपने चारों ओर बना ली, हमने क्षुद्र स्वार्थ की कारा।
    ‘मोती कच्चे धागे मेंहाइकु-संग्रह विष पीकर अपराजित रहने वाले व्यक्तित्वोंको समर्पित है। इस संग्रह के अधिकांश हाइकु आज के दौर के तौर-तरीकों पर जहां व्यंग्य के साथ उपस्थित हैं, वहीं कुछ में चम्पई धूप जैसा रूप मुस्कानों में प्यास जगाता हुआ नज़र आता है। कुछ हाइकुओं का भविष्य की चिंता के बदले वर्तमान को मस्ती के साथ जीने से नाता है। भले ही जीवन-क्षण/ मुट्ठी में खिसकते/ बालू के कणहों, भले ही नेह-निर्झर/ मिले सूखने पर/ रेत पत्थरके समान हों, किन्तु हाइकुकार का विश्वास है-यदि लगन/ तो शिखर भी झुकें/ करें नमन। इसी कारण वह कह उठता है-मत रो मन/ तपने से मानव/ होता कुन्दन। इस पुस्तक को पढ़कर यह कहा जा सकता है कि मोती कच्चे धागे मेंहाइकु-कृति सहमति-असहमति, रति-विरति, उन्नति-अवनति की गति को प्रकट करने में पूरी तरह सफल है।
सूख गये सब तालग़ज़ल संग्रह की ग़ज़लें शुद्ध रदीफ-कापियों के प्रयोग के कारण उस तुक-रोग से मुक्त हैं, जो सामान्यतः आज के ग़ज़लकारों में पाया जाता है। इन ग़ज़लों में छंद-दोष भी नहीं है, इसलिये इन्हें धारा-प्रवाह पढ़ा या गाया जा सकता है। महकते हरसिंगार, ग़ज़लकार को बार-बार प्रेयसि को वियोग में आंसू बहाने के लिये विवश करते हैं। उसके मन के भाव कभी उल्लास तो कभी अवसाद से भरते हैं।  शृंगार के संयोग या वियोग के पक्ष को प्रस्तुत करने में ग़ज़लकार पूरी तरह दक्ष नज़र आता है। इस संग्रह में ऐसी भी अनेक रचनाएं हैं, जिन्हें कवि ने व्यवस्था के प्रति पनपे आक्रोश से जोड़ा है। ऐसी रचनाएं अपना अलग ही प्रभाव छोड़ती हैं। चोट-खाये आदमी के मन पर नीबू-सा निचोड़ती हैं।
    डॉ. गोपाल बाबू शर्मा की अब तक प्रकाशित 9 काव्य-कृतियों को पढ़ने के बाद, यह बात तर्कपूर्वक कही जा सकती है कि कवि में काव्यत्य के सभी वे गुण विद्यमान हैं, जिनसे काव्य श्रेष्ठ बनता है।
डॉ. गोपालबाबू शर्मा जीवन के 82 वसंत देख चुके हैं। काया में भले ही वे आज दुर्बल हैं, लेकिन उनकी कविता के भाव प्रबल हैं। ईश्वर करे यह प्रबलता यूं ही लम्बे समय तक ध्वनित होती रहे। विरस होते वातावरण में सुगन्ध घोलती रहे। कविताएं लिखने का जज़्बा आज भी उनके भीतर मौजूद है। आशा है अभी उनकी कई नयी काव्य-कृतियां सामने आएंगी।
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रमेशराज,15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001   
                    मोबा.9634551630     


Saturday, July 16, 2016

विरोध-रस की काव्य-कृति ‘वक्त के तेवर’ +रमेशराज




विरोध-रस की काव्य-कृति वक्त के तेवर

+रमेशराज
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    स्थायी भाव आक्रोशसे युक्त विरोध-रसका उद्बोधन कराने वाली सुप्रसिद्ध तेवरीकार ज्ञानेन्द्रसाज की कृति वक्त के तेवरचुनी हुई 64 तेवरियों का ऐसा संग्रह है जिसका रसास्वादन पाठकों में स्थायी भाव आक्रोशऔर असंतोषजागृत कर विरोध और विद्रोहके रसात्मक बोध में ले जाता है। विरोध और विद्रोह की यह रसात्मकता आलंबन विभावके रूप में वर्तमान व्यवस्था के उपस्थित होने तथा उद्दीपन विभावके रूप में इसी व्यवस्था के विद्रूप अर्थात् घिनौने आचरण के कारण रस-रूप में जन्म लेती है।
    वक्त के तेवरतेवरी-संकलन की तेवरियां ऐसे रस-मर्मज्ञों के बीच अवश्य ही असफल सिद्ध होंगी, जो अधूरी और अवैज्ञानिक रस-परम्परा से चिपके हुए हैं। रस के ऐसे पंडितों को तेवरीकार ज्ञानेन्द्र साज़ का यह प्रयास बालू से तेल निकालने के समान भले ही लगे लेकिन जो सहृदय विद्वान रसानुभूति को विचार की सत्ता से जोड़कर सोचने-समझने की सामर्थ्य  रखते हैं, उन्हें यह तेवरियां हर प्रकार आश्वस्त और रस-सिक्त करेंगी।
    तेवरीकार आक्रोशित इसलिए है-
गर्दिशों में सवेरे हैं क्या कीजिए
हर जगह गम के डेरे हैं क्या कीजिए?
आप दामन बचायेंगे किस-किस जगह
हर गली में लुटेरे हैं क्या कीजिए?
    तेवरीकार अपने भीतर के आक्रोश, विरोध, असंतोष और विद्रोह को इस प्रकार प्रगट करता है-
अपनी तो समझ में ये बात नहीं आयी
ये कौम के रहबर हैं या देश के कसाई।
अथवा
बदले हुए हैं वक्त के तेवर
घूमता आक्रोश सड़कों पर।
इनको न होगा किसी का डर
रख देंगे तोड़कर ये शीशाघर।
    तेवरीकार ज्ञानेन्द्र साज ने वक़्त के तेवरतेवरी-संग्रह की भूमिका एक सार्थक सवाल के साथ आरम्भ की है-‘‘मैंने सदैव ग़ज़ल और तेवरी में अन्तर महसूस किया है। यह अलग बात है कि ग़ज़ल के तथाकथित दिग्गजों के हलक में यह बात नहीं उतरती। शायद इसीलिये यह मुद्दा विवादास्पद बना हुआ है। ये लोग सहमति या असहमति के किसी भी रूप में अपना मुंह नहीं खोलना चाहते।’’
    साज़जी का उपरोक्त कथन एक ऐसी कड़वी सच्चाई है जो ग़ज़ल और तेवरी के उस विवाद की ओर संकेत करता है, जिसको सुलझाये बिना कथित हिन्दीग़ज़ल के पक्षधर तेवरी को खारिज कर या तो उसे हिन्दीग़ज़ल घोषित करते हैं या हिन्दीग़ज़ल का एक अशास्त्रीय ढांचा बताते हैं। तेवरी के वैज्ञानिक स्वरूप पर कथित हिन्दीग़ज़ल के पंडित इसलिये चर्चा करना नहीं चाहते हैं क्योंकि इससे उनकी हिन्दी ग़ज़ल का सारा का सारा स्वरूप विखण्डित हो जायेगा। इसी कारण ऐसे लोग बिना किसी बहस के हिन्दी ग़ज़ल... हिन्दी ग़ज़लका हो-हल्ला मचाये हुए हैं।
    ग़ज़ल की स्थापना प्रेमिका से प्रेमपूर्ण बातचीतके संदर्भ में की गयी। इसकी सामान्यतः दो विशेषताओं रदीफ तथा काफिया को लेकर हिन्दी में हिन्दीग़ज़ल का एक निष्प्राण स्वरूप खड़ा किया गया, बिना यह सोचे-समझे कि जब किसी वस्तु का चरित्र बदल जाता है तो वह वस्तु अपने नाम की सार्थकता को खो देती है। यही नहीं उसके शिल्प में भी क्रान्तिकारी परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगता है।
    हिन्दी ग़ज़ल... हिन्दी ग़ज़ल... का होहल्ला मचाने वाले और इसे प्रलयंकारी मशाल बताने वाले हिन्दीग़ज़लकारों के मन में पता नहीं कब यह बात बैठैगी कि कोठे पर बैठने वाली चम्पाबाई और रानी लक्ष्मीबाई में जमीन-आसमान का अन्तर है। यदि कोई चम्पाबाई अपनी भोगविलास की वृत्ति को त्यागकर रानी लक्ष्मीबाई की तरह इस घिनौनी व्यवस्था से टकराने के लिये हाथों में तलवार लेकर खड़ी है तो उसे रानी लक्ष्मीबाई कहकर पुकारने में इन्हें शर्म क्यों महसूस होती है।
    ग़ज़ल और तेवरी में भेद न करने वाले ऐसे हिन्दीग़ज़ल के पक्षधरों को यह भी सोचना चाहिए-
    जल उसी स्तर तक जल की सार्थकता ग्रहण किये रहता है जबकि वह हाइड्रोजन और ऑक्सीजन का यौगिक है। यदि कोई व्यक्ति उसमें साइनाइड मिला दे तो ज़हर बन जाता है। यही जल एल्कोहल के साथ खराब पुकारा जाता है।
    मोमबत्ती, दीपक और बल्ब अंधकार को प्रकाशवान बनाते हैं लेकिन हम इनका एक ही तरीके से आकलन नहीं कर सकते।     
फांसी देकर हत्या करने वाले को जल्लाद, घात लगाकर हत्या करने वाले को शिकारी या आखेटक, गोश्त का व्यापार करने हेतु हत्या करने वाले को कसाई कहा जाता है। हत्या करने वालों का यह वर्गीकरण उनके गुणधर्मों पर आधारित है।
    वायुयान के चालक को पाॅयलटऔर बस के चालक को ड्राइवरकहना उनकी चारित्रिक पहचान कायम करना है।
लेकिन जिन लोगों को इस चारित्रिक-महत्ता या अर्थवत्ता की पहचान नहीं है या इस चारित्रिक बहस से दूर भागते हैं, उन्हें तेवरी और ग़ज़ल के चरित्र में कोई फर्क नज़र आयेगा या कभी इस बहस में शरीक होकर इसे प्रासंगिक बनाने का प्रयास करेंगे, ऐसी उम्मीद रखना इन लोगों के समक्ष बेमानी ही रहेगी। इसीलिए ज्ञानेन्द्र साज का वक्त के तेवरसंकलन में उठाया गया बहस का यह मुद्दा कि मैंने ग़ज़ल और तेवरी में सदैव अंतर महसूस किया है’, बहस के केंद्र-बिन्दु में ऐसे कथित ग़ज़ल के पंडितों के बीच कोई खलबली नहीं मचायेगा जो हिन्दीग़ज़ल की स्थापना में बिना किसी तर्क का सहारा लिये जुटे हैं।
    हिन्दी ग़ज़ल को प्रलयंकारी मशाल, आम आदमी के दुखदर्दों की संजीवन बूटी बताने वाले कथित यथार्थ-आग्रही हिन्दी ग़ज़लकारों को सच बात तो यह है कि इन्हें न तो ग़ज़ल लिखने की तमीज है और न तेवरी की।
ऐसे विद्वान ग़ज़ल को प्रलयंकारी मशाल बताने के बाबजूद उसमें जनधर्मी चिन्तन को प्रेमिका से आलिंगनबद्ध होते हुए भर रहे हैं | इनके ग़ज़ल-कर्म में प्रेमिका को बांहों में भरने का जोश और कुब्यव्स्था से उत्पन्न आक्रोश का अर्थ एक ही मालूम पड़ता है |
    तेवरी की स्थापना जिन मूल्यों को लेकर की गयी, वह मूल्य ग़ज़ल के चरित्र को न पहले ग्रहण करते थे और न अब करते हैं। तेवरी हमारे रागात्मक सम्बन्धों की सत्योन्मुखी प्रस्तुति है। तेवरी आक्रोश, असंतोष, विरोध और विद्रोह का एक ऐसा स्वर है जो हर प्रकार की कुव्यवस्था के प्रति मुखरित होता है। जबकि ग़ज़ल या हिन्दी ग़ज़ल आज भी शृंगार, रति, काम और अभिसार के साथ-साथ व्यवस्था-विरोध के घालमेल का सार है। यह घालमेल निश्चित रूप से अपरिपक्वता, अज्ञानता को द्योतक है। तेवरी एक स्पष्ट सुविचारित यात्रा है जबकि हिन्दी ग़ज़ल या कथित ग़ज़ल एक अंधी दौड़ है।
    वक्त के तेवरतेवरी-संकलन की तेवरियां पढ़कर यह बात अन्ततः या अन्त तक स्पष्ट होती है कि तेवरी ग़ज़ल की तरह किया गया ऐसा कोई कुकर्म नहीं जो प्रेमिका को बाहों में भरकर आलिंगनबद्ध होते हुए कुव्यवस्था को गाली देने का बोध कराये। तेवरी प्रेमिका को बांहों में भरने के जोश और कुव्यवस्था से उत्पन्न होने वाले आक्रोश में अन्तर करना भलीभांति जानती है।
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001

मो.-9634551630       

व्यंग्य एक अनुभाव +रमेशराज




व्यंग्य एक अनुभाव

+रमेशराज
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 डॉ. शंकर पुणतांबेकर से मेरी भेंट बरेली लघुकथा सम्मेलन में हुई। लघुकथाकारों के बीच मुझे डॉ. शंकर पुणतांबेकर काफी सुलझे हुए विचारों वाले चिन्तक लगे। वर्तमान साहित्य में रस’ पर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि ‘‘वर्तमान साहित्य को रस की पुरानी पद्यति के आधार पर नहीं आका जा सकता।.. इसके लिये हमें नये रसों की खोज करनी पड़ेगी।’’ इसी संदर्भ को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा कि ‘‘मेरे विचार से वर्तमान साहित्य में बुद्धि रस’ या विचार रस’ की निष्पत्ति होती है।’’
डॉ. पुणतांबेकर की इस बात से तो मैं सहमत हुए बगैर न रह सका कि वर्तमान यथार्थोन्मुखी साहित्य के आकलन के लिये हमें रस की परम्परागत कसौटी का तो परित्याग करना ही पड़ेगाइसके साथ-साथ इसके आकलन के लिये नये रसों का खोजा जाना भी आवश्यक है | वैसे भी यह कोई अप्रत्याशित घटना नहीं होगी। आचार्य भरतमुनि के बाद भी तो रस परम्परा को जीवंत और प्रासंगिक बनाने के लिये भक्ति रसशान्त रस जैसे मौलिक रसों की खोज की गयी। लेकिन उनका यह मानना कि वर्तमान कविता में बुद्धि रस’ या विचार रस’ जैसा कोई रस होना चाहिए या हो सकता हैमुझे अटपटा और अतर्कसंगत महसूस हुआ। मैंने डाक्टर साहब से इस विषय में निवेदन किया कि ‘‘ बिना बुद्धि या विचार के आश्रयों के मन में क्या किसी प्रकार से या किसी प्रकार की रसनिष्पत्ति सम्भव हैभाव तो विचार की ऊर्जा होते हैं। विचार के बिना भाव का उद्बोधन किसी भी प्रकार सम्भव नहीं। यदि हमारे मन में यह विचार नहीं कि राष्ट्र की रक्षा करनी चाहिए’’ तो ऐसे विचार के बिना कैसी राष्ट्रभक्तिशत्रु पक्ष को कुचलने का विचार यदि मानव को उद्वेलित न करें तो कैसे होगी रौद्र-रस की निष्पत्तिठीक इसी प्रकार यदि हमारे मन में यह विचार घर किये हुए न हो कि सामने शेर है और वह कभी भी हमारे प्राण ले सकता है तो कैसे होगा हमारे मन में भय का संचारअतः यह तो मानना ही पड़ेगा कि रस के निर्माण में बुद्धि अपनी अहं भूमिका निभाती है। हमारा दुर्भाग्य यह रहा है कि हमने रस को बुद्धि तत्त्व से काटकर कोरी भावात्मकता की ऐसी अन्धी गुफाओं में कैद कर डालाजहां तर्क और विज्ञान की रोशनी पहुंचने की कोई गुंजाइश नहीं। परिणाम हम सबके सामने हैं कि रीतिकाल का कूड़ाकचरा और छायावाद-प्रयोगवाद की यौन कुंठाओं से भरी हुई कविता भी कथित सूक्ष्म अनुभूति का रसात्मक पक्ष बन गयी। बहरहाल इस चर्चा में डॉ. पुणतांबेकर ने यह तो स्वीकारा कि रस को बिना बुद्धि के तय नहीं किया जा सकता। लेकिन बुद्धि रस’ या विचार रस’ के प्रति वह अपने आपको तटस्थ रखते हुए चुप हो गये।
    रस के संदर्भ में यह सारी चर्चा यहां इसलिए उठायी गयी है क्योंकि व्यंग्य-विविधा’ नामक पत्रिका के अंक-दो में ‘ विवाद एक विधा का’ के अन्तर्गत कुछ इसी प्रकार की चर्चा विभिन्न पत्रों में की गयी हैजो डॉ. शंकर पुणतांबेकर के आलेख विधा के रूप में व्यंग्य की स्थापना’ से सम्बन्धित है। व्यंग्य’ एक विधा है अथवा नहींइसे तो तय व्यंग्यकारों को ही करना है। फिलहाल अपने आपको इस सारे पचड़े से दूर रखते हुए मैं यह कहना चाहूंगा कि व्यंग्य के बिना वर्तमान साहित्य को सार्थकप्रासंगिक नहीं ठहराया जा सकता। व्यंग्य वर्तमान साहित्य का प्राण हैबशर्ते उसमें  सत्य और शिव का समन्वय हो।
    ‘तेवरी में रस-समस्या और समाधान’ नामक अपनी पुस्तक में मैंने व्यंग्य की इसी प्रकार की सार्थकता को दृष्टिगत रखते हुए तेवरी का रसपरक विवेचन किया है और व्यंग्य को वाचिक अनुभाव मानते हुए यह सिद्ध किया है कि व्यंग्य एक वाचिक अनुभाव है और यह वाचिक अनुभाव साहित्य में विरोध’ और विद्रोह रस’ की निष्पत्ति कराता है। 
    दो-दो नये रस-विरोध’ और विद्रोह’ की खोज करते हुए इनके स्थायी भाव मैंने क्रमशः आक्रोश’ और असंतोष’ बताये हैं। उपरोक्त तथ्यों की पुष्टि में मैं व्यंग्य विविधा-दो’ में ही व्यंग्य की शैली’ शीर्षक डॉ. बालेन्दु शेखर तिवारी के आलेख का एक अंश उद्धृत करना चाहूंगा कि-‘‘ व्यंग्य हर समय में परिवेशगत अन्तर्विरोधों एवं स्खलित चलनों के खिलाफ तेज हथियार की भूमिका में रहता है। व्यंग्यकार अपने समय की शोषित-भ्रमित जनता के दर्द का उद्घोषक होता है। लक्ष्यच्युत समाज की आंख में उंगली डालकर दोनों की परिसमाप्ति करना चाहता है। हर युग की हर भाषा के समर्थ व्यंग्यकार की सर्जना में कुनैन के तीतेपन और तेजाब की दाहक मात्रा इतनी अधिक रही है कि व्यंग्यालम्बन के तन-मन को बेचैन कर डालने के लिये पर्याप्त है। सजग व्यंग्यकार के पास परिवेशगत सड़ांध  और मवाद को महसूसने वाली सही घ्राणचेतना होती है और जेहाद छेड़ने की अनूठी भाषायी शक्ति भी। एक सनसनाती हुई तेजी के साथ व्यंग्यकार जो कुछ टूटने योग्य हैउसे तोड़ डालने का प्रयास करता है।’’
    डॉ. बालेन्दु शेखर तिवारी के उल्लेखित अंश के आधार पर निम्न तथ्य ध्यान देने योग्य हैं-
1. बकौल डॉ. तिवारी-व्यंग्य में कुनैन के तीतेपन और तेजाब की दाहक मात्रा होती है जो परिवेशगत अन्तर्विरोधोंस्खलित चलनोंलक्ष्यच्युत समाज की परिसमाप्ति के लिये अर्थात्जहां जो कुछ टूटने योग्य हैउसे तोड़ डालने का प्रयास करती है। प्रश्न यह है कि इस प्रकार के कार्य को करने की क्षमता अर्थात् ऊर्जा काव्य में कहां से प्राप्त होती है?
    प्रश्न का उत्तर यह है कि जिसे डाक्टर बालेन्दु शेखर तिवारी व्यंग्य में अन्तर्निहित कुनैन की तीतापन और तेजाब की दाहक मात्रा कह रहे हैंवह कभी आक्रोश’ में तो कभी असंतोष’ में प्रकट होने वाली वह ऊर्जा है जो रस परिपाक की अवस्था में कभी विरोध’ तो कभी विद्रोह’ से आश्रयों को सिक्त करती है। रसपरिपाक के रूप में यह ऊर्जा का चरमोत्कर्ष ही जब कार्य करने की दर अर्थात् शक्ति [व्यंग्य] में प्रकट होता है तो व्यंग्यालंबनों [परिवेशगत अन्तर्विरोधसडांध और मवादलक्ष्यच्युत समाज] के प्रति जेहाद ही नहीं छेड़ताइनमें जो कुछ टूटने योग्य होता हैउसे तोड़ डालने का प्रयास करता है। बात को समझाने के लिये व्यंग्य विविधा-दो’ से ही प्रख्यात व्यंग्यकार शरदजोशी के व्यंग्य का उदाहरणस्वरूप एक अंश प्रस्तुत है-
‘‘कांग्रेस ने अहिंसा की नीति का पालन किया और उस नीति की सन्तुलित किया लाठीचार्ज और गोली से। सत्य की नीति पर चली। सच बोलने वालों से सदा नाराज रही। हस्तकर्धा और ग्रामोद्योग को बढ़ावा दिया और उसकी टक्कर लेने के लिये कारखानों को लायसेंस दिये।“
    शरद जोशी की उल्लेखित पंक्तियों का यदि हम रसात्मक विवेचन करें तो इन पंक्तियों में आलम्बन तो कांग्रेस है और रसात्मकबोध को पैदा करने वाला आलम्बनगत उद्दीपन विभाव अर्थात् आलम्बन का वह धर्म या आचरण हैजिसकी पहचान आश्रय के रूप में रचनाकार अन्तर्विरोधोंदुराचरणोंथोथे आदशों के रूप में करता है और वह जब यह निर्णय ले लेता है कि कांग्रेस की सन्तुलित नीति वह कथित नीति हैजिसका पालन वह अहिंसा का आदर्शवादी मुखौटा पहनकर जनता पर लाठी चार्ज और गोली चलाकर करती है। सत्यवादी होने का ढोंग रचकर सच का गला काटती है। ग्रामोद्योग के थोथे आश्वासन देकर शहरों में बड़े-बड़े कारखानों का विकास करती है’’ तो उसे कांग्रेस के घिनौने और जनविरोधी चेहरे की पहचान हो जाती है कि कांग्रेस वास्तव में थोथे आदर्शोंघिनौने आचरण वाली एक पार्टी है।’’
    जब आश्रय [रचनाकार] के मन को यह विचार ऊर्जस्व अवस्था में आता है तो उसका मन कांग्रेस के प्रति आक्रोश’ से सिक्त हो जाता है। डॉ. स्वर्ण किरण के अनुसार-‘‘ आक्रोश शब्द आड. उपसर्ग पूर्वक क्रुश धातु में ध प्रत्यय लगाकर बनाया गया है। जिसका अर्थ है क्रोधकर्तव्य निश्चयआक्षेपअभिषंगशापकोसनानिंदा करनाकटूक्ति आदि।’ बिलबिलाहट आक्रोश का व्यवहार रूप है। आक्रोश वस्तुतः व्यक्ति की आंतरिक घृणा का मूर्त रूप हैजो असंगतिविसंगति को हटाने का काम करता है। व्यंग्य लेखक इसका उपयोग कभी सीधेकभी प्रकारान्तर से करता हैपर इसका मूल लक्ष्य बुराई या कमी को दूर करना है। चाहे लघुकथा होलघुव्यंग्य होतेवरी हो या साहित्य की कोई अन्य विधाआक्रोश अपने रोशन पहलू के रूप में हमारे सामने आता है।’’
    डॉ. स्वर्ण किरण की उपरोक्त मान्यता के आधार पर हम यदि शरद जोशी के उद्धृत अंश में आक्रोश की स्थिति देखें तो आश्रय के रूप में व्यंग्यकार के जो वाचिक अनुभाव यहां अपना व्यंग्यात्मक स्वरूप ग्रहण करते हैंउसमें कांग्रेस की घिनौनी आचरणशीलता की निन्दाकोसने की क्रियाआक्षेप आदि लगाना व्यंग्य के रूप में अनुभावित हुआ है। इन अनुभावों के सहारे हम यह आसानी से पता लगा सकते हैं कि व्यंग्यकार के मन में कांग्रेस के प्रति जिस प्रकार की बिलबिलाहटछटपटाहट मौजूद हैवह आक्रोश को व्यक्त करने के पीछे आखिर प्रयोजन या उद्देश्य क्या है?
    मेरा मानना है व्यंग्य के पाठकों को आक्रोश से सिक्त कर कांग्रेस के दुराचरण का विरोध। व्यंग्यकार की वैचारिक ऊर्जा यहां आक्रोश के रसपरिपाक ‘विरोध’ से लैस होने के कारण हीकांग्रेस के आचरण की निन्दाभर्त्सना करती है। यदि यहां कांग्रेस का आचरण बदलने का विचार आक्रोश से विरोध की रस परिपाक की अवस्था तक व्यंग्यकार के मन में ऊर्जस्व न रहा होता तो शरद जोशी का यह व्यंग्य अपनी एक विशेष शैली में परिवेशगत अन्तर्विरोधों एवं स्खलित चलनों के खिलाफ तेज हथियार की भूमिका नहीं निभा सकता था। और न व्यंग्यकार का प्रयोजन या उद्देश्य सफल हो पाता।
    अस्तु भाव विचार की ऊर्जा होते हैं और वह शक्ति के रूप में अनुभावों में प्रकट होते हैं। व्यंग्य व्यंजनाशक्ति के अन्तर्गत आता हैअतः यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि व्यंग्य विरोध रस’ का एक वाचिक अनुभाव है जो एक विशिष्ट प्रकार की शैली में व्यक्त किया गया है। व्यंग्य के माध्यम से विरोध रस की स्थिति शरद जोशी के उल्लेखित व्यंग्य शानदार उपलब्धियों के चालीस वर्ष’ में अपनी परिपाक अवस्था में इस प्रकार देखा जा सकता है-‘‘ जब तक पक्षपातनिर्णयहीनताढीलापनदोमुंहापनपूर्वाग्रहढोंगदिखावासस्ती आकांक्षालालच कायम हैकांग्रेस बनी रहेगी।’’
    व्यंग्यकार की उक्त पंक्तियां का अनुभावन जब व्यंग्य के पाठक या श्रोताओं के मन में होगा तो इस व्यंग्य के सही और सत्योन्मुखी पक्ष पर विचार करते हुए पाठकों में स्थायी भाव आक्रोश’ जाग्रत होगा और जब उनके मन को यह विचार कि कांग्रेस आचरणहीनमुखौटेबाजजनघाती पार्टी हैजिसे अब तो बदल देना ही चाहिए’, पूरी तरह उद्वेलित कर डालेगा तो स्थायी भाव आक्रोशविरोधरस की निष्पत्ति करायेगा। लेकिन रस की इस समस्त प्रक्रिया को भाव के साथ विचार’ से जोड़ना ही पड़ेगा। इस संदर्भ में हमें निम्न बिन्दुओं पर अवश्य विचार करना होगा-
1. भाव विचार से जन्य ऊर्जा होते हैं।
2. जिस प्रकार का विचार आश्रय के मन में अन्तिम निर्णय के रूप में सघन होता हैउसी के अनुसार कोई न कोई भाव स्थायित्व ग्रहण कर लेता है। भाव मनुष्य के हृदय में संस्कार रूप में पड़े रहते हैंयह तर्क अविज्ञानपरक और बेबुनियाद है।
3. रस की निष्पत्ति आलम्बन से नहींआलम्बन के धर्म द्वारा होती है।
4. पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा गिनाये गये रसों पर ही रस-संख्या खत्म नहीं हो जातीकाव्य की वैचारिक प्रणाली ज्यों-ज्यों तब्दील होती जायेगीरसों में भी गुणात्मकता बढ़ोत्तरी संभव है।
5. काव्य का सम्बन्ध जब आश्रय अर्थात् पाठक, श्रोता या दर्शक से जुड़ता है तो यह कोई आवश्यक नहीं कि उसमें उसी रस की निष्पत्ति होजो कि काव्य में अन्तर्निहित है।
7. व्यंग्य के संदर्भ में विरोध रस’ का परिपाक व्यंग्य अर्थात् वाचिक अनुभाव मेअन्तर्निहित वक्रोक्तिप्रतीकात्मकतासांकेतिकताव्यंजनात्मकता के सहारे ध्वनित होने वाले अर्थ को समझे बिना संभव नहीं।
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