+डॉ. अनूप सिंह
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कवि
और कविता का एक ऐसा अटूट रिश्ता है, जिसकी आजतक कोई भी आलोचक सटीक व्याख्या नहीं
कर पाया है | अपने-अपने दृष्टिकोण के आधार पर सब अपना मत व्यक्त करते हैं | किसी
को किसी की कविता में कुछ नज़र आता है, किसी को कुछ | कोई छंद के गीत गाता है तो
कोई रस की मीमांसा करता है | कोई अलंकारों, उक्तियों के आधार पर अभिव्यक्ति खोजकर
कवि एवं कविता का सौन्दर्य-बोध निरूपित करता है |
‘कविता करके तुलसी न लसे / कविता लसी
पा तुलसी की कला ‘
हमारी
समझ से कवि और कविता के सम्बन्ध में या ये कहें कि तुलसीदास तथा रामचरित मानस के
सम्बन्ध में जिस किसी ने भी ये पंक्तियाँ गढ़ीं, उससे अधिक कवि एवं कविता के बारे
में कुछ नहीं कहा जा सकता | ये पंक्तियाँ इतनी सटीक हैं कि किसी भी कवि की कविता
पर इन्हें रखकर परखो तो तुरंत कवि और कविता का भाव-सौन्दर्य, कला-सौन्दर्य स्पष्ट
उद्भाषित हो जायेगा |
हम
यहाँ तुलसी तथा ‘ रमेशराज ‘ की इन पंक्तियों द्वारा तुलना नहीं कर रहे, वरन यह
कहना चाहते हैं कि ‘ रमेशराज ‘ की कविता उनकी कला का कमाल है | कला से ही कविता की
पहचान है | जैसे तुलसी की कला से उनकी कविता श्रेष्ठ हो गयी, वैसे ही ‘ रमेशराज ‘
की कला से उनकी कविता श्रेष्ठता को प्राप्त हो गयी है |
‘
तेवरी ’ शब्द ‘ तेवर ‘ से बना है, जिसका अर्थ होता है-‘तिरछी नज़र, टेढ़ी दृष्टि तथा
तीखापन ‘ | ‘ तेवरी ‘ विचारों के तीखे, तिक्त, कषैले शब्दों का व्यापार है | कवि
रमेशराज अपनी कविता का वितान इसी ‘ तेवर ‘ को अपनाकर रचा है तथा हिंदी साहित्य की
नूतन काव्य-विधा ‘ तेवरी ‘ का प्रचलन किया है, जो इनके मौलिक चिन्तन, गवेषणा शक्ति
तथा भाव-सम्प्रेषणीयता को दर्शाता है |
‘
तेवरी ‘ विधा को साहित्य में स्थापित करने के उद्देश्य से रमेशराज जी ने कितना
श्रम किया है, इसका अंदाजा हमें इनके समस्त लेखन को देखकर सहज ही हो जाता है |
इनके व्यंग्य के अपने तेवर हैं, अपनी वक्रोक्ति है और अपनी ध्वन्यात्मकता है |
यथार्थ का चित्रण करते हुए इनकी कविताएँ एक विशेष लय में चलती हैं | इनके छंदों का
रचना-विधान इतना अनूठा और कलात्मक है कि इनके कला-सौष्ठव पर मुग्ध हुए बिना नहीं
रहा जा सकता | प्रयोग-धर्मिता इनकी कविता की सबसे बड़ी विशेषता है | भावों के,
छंदों के इतने नूतन प्रयोग इन्होने अपनी ‘ तेवरी ‘ में किये हैं कि इन्हें देखकर
इनकी काव्य-प्रतिभा का सम्मान किये बिना नहीं रहा जा सकता |
इन
‘ तेवरियों ‘ में अपने विशिष्ट मीटर, विशिष्ट पैमाने हैं तथा विशिष्ट विषय वैविध्य
हैं | छांदस कविता का शतशः अनुपालन करते हुए इन्होंने आधुनिक छन्दमुक्त कविता का
भ्रम तोड़ दिया है | प्रायः छांदस कविता के बारे में कहा जाता है कि वह
आधुनिकता-बोध को सहजता के साथ व्यक्त करने में असमर्थ होती है | छंद में कवि बंधा
हुआ रहता है | खुलकर अपनी बात नहीं कह पाता, किन्तु रमेशराज की तेवरियाँ इस बात का
प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि छंद में भी कवि अपने को अबाध रूप से अभिव्यक्त कर सकता है
| इसके लिए कवि में अपने कवि-कर्म के प्रति पूर्णतः प्रतिबद्ध होकर औरों से पृथक
रचने की इच्छा-शक्ति आवश्यक होती है |
तेवरीकार
रमेशराज में वह इच्छा-शक्ति कूट-कूट कर भरी दिखाई देती है, जिसके बल पर इन्होंने ‘
तेवरी ’ विधा का इतना बड़ा वितान खड़ा कर दिया है | कुछ तेवरियाँ देखिये-
बस आज दंगा देखिए,
हाथ में चाकू लिये गुण्डा-लफंगा
देखिए।
गुम हुई भागीरथी अब,
आजकल बस बह रही है गटरगंगा देखिए।
देशद्रोही काम जिनके,
उन सभी के हाथ थामे हैं तिरंगा देखिए।
कल मिलेंगे फूल-पत्ती,
आजकल इस आस में हर पेड़ नंगा देखिए।
इन सियासी दीपकों पर,
कर रहा
है प्राण न्यौछावर पतंगा देखिए।
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यारन की घातन में
जि़न्दगी गुजर गयी ऐसी कुछ बातन में।
भूख अश्रु-धार
बीच
नींद कब आयी हमें, चाँद-भरी
रातन में।
आज़ादी न जान सके
पले हम आजतक घूँसा और लातन में।
आजा यार गले मिल
बँटा-बँटा
मत रह धर्म और जातन में।
ज्वालामुखी बन देख
जीना अब और नहीं मातन में-घातन
में।
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बलम छोड़ हठ-‘छत
हो गाटर-पटिया की’
मेरी बात मान लै अब तू छत्ति तान लै टटिया की।
चोरी की बिजली संकट को लायेगी
ज्यादा दिन तक छुपी रहै सुन ये तरकीबन कटिया की।
बिछा चद्दरा हम-तुम
सोयें धरती पर
अपने घर दामाद पधारौ करि जुगाड़ तू खटिया की।
बुरे दिनों का हल शराब से क्या निकले
फिर पी आयौ बालम पउआ तूने हरकत घटिया की।
सुन बच्चों के संग बलम मैं भी-तू
भी
बता करैगौ फाँकें कितनी खरबूजे की बटिया की।
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हर तरफ आहों भरे मंजर बहुत हैं
दिख रहे चारों तरफ खंजर बहुत हैं। नैन जन के तर
बहुत हैं।।
क्या पता बस्ती से आखिरकार पूछें
गुम हुए हैं आज घर में घर बहुत हैं। नैन जन के तर
बहुत हैं।
दीखतीं जिस ओर भी रौशन दिशाएँ
उस तरफ अब रहजनी के डर बहुत हैं। नैन जन के तर बहुत
हैं।
आ गये आदर्श की किन मंजिलों पर
कंठ में अपने अनैतिक स्वर बहुत हैं। नैन जन के तर
बहुत हैं।
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यार जंग जारी रख
क्रन्तिकारी सोच के ये प्रसंग जारी रख
|
लूटते हैं नेता आज
उनके विरोध में अंग-अंग जारी रख |
ज़िन्दगी है घाव-घाव
किन्तु मुस्कान के शोख रंग जारी रख |
जैसे तलवार चले
‘ तेवरी ’ के बीच में वो तरंग जारी रख
|
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‘
बुलंदप्रभा ‘ के प्रस्तुत अंक में इनकी [ रमेशराज ] रचनाधर्मिता को पाठकों के
समक्ष प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष हो रहा है | पाठक इनके विस्तृत रचना-संसार
से परिचित हों, इनकी भाषा के तेवरों को जानें तथा इनकी ‘विरोधरस ’ की मौलिक
अवधारणा के आलोक में इनकी चिन्तन-शक्ति का परिचय प्राप्त करें |
[ रमेशराज पर केन्द्रित ‘ बुलंदप्रभा’
जुलाई-सितम्बर-15 का सम्पादकीय ]
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डॉ. अनूप सिंह , चलभाष-9997562922
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