रमेशराज
एक जुझारू व्यक्तित्व
+दर्शन बेज़ार
-------------------------------------------------------------------
लगभग तीस-बत्तीस वर्ष पूर्व सन् 1981 से 1985
तक तैनाती संयोगवश अलीगढ मुख्यालय पर हो गई। जयगंज के डॉ. अशोक अग्रवाल जो स्वयं
भी ख्यातिप्राप्त लघुकथा लेखक रहे हैं, मेरे
पारिवारिक चिकित्सक थे, उनके पास
प्रायः आना जाना होता था। उनके क्लीनिक पर ‘तेवरीपक्ष’ [त्रैमा.] की एक प्रति पढ़ने
को उठाली | मुख्यपृष्ठ पर ही एक तेवरी रचना छपी हुई देखकर डाक्टर साहिब से वह अंक
पढ़ने के लिए घर ले आया, अंक क्या
पढ़ा, एक-एक तेवरी मन में उतरती
चली गई।
मेरे अनुरोध पर डाक्टर साहब ने तेवरीपक्ष के संपादक
भाई रमेशराज से मिलवा दिया | बैठकें होने लगीं, उस
समय साहित्य में उभरती रचनाधर्मिता पर गंभीर चर्चाएं भी होने लगीं ,
कई अन्य तेवरी लेखकों से भी विचारविमर्श होने लगे।
तेवरी अन्दाज में मैं भी कुछ-कुछ लिखने लगा। वैसे छात्र जीवन में सन् 72 तक मैं
अन्य प्रकार की रचनाएं लिखता अवश्य था, किन्तु
उनमें तेवर न होकर परिस्थितियों पर निराशा ही परिलक्षित होती थी | कुछ रोमानी
ग़ज़लें भी लिखी थीं, किन्तु
सेवा में आने पर लिखना प्रायः छूट-सा गया था तथा पारिवारिक उत्तरदायित्वों तक ही
दिनचर्या सीमित रह गई थी। इस बीच मेरे अभियंता साथी भाई सूरज सिंह पाल ने मुझसे कहा कि हास्यसम्राट तथा अभिनेता शैल
चतुर्वेदी जी उनके अभिन्न मित्र हैं, वे
चाहते हैं कि उनका अभिनन्दन अलीगढ़ जनपद के सभी अभियंताओं की ओर से किया जाना
चाहिए। मैंने इस प्रस्ताव पर आगे और जोड़ दिया कि कविवर नीरज तथा शैल चतुर्वेदी
दोनों का ही एक साथ अभिनन्दन दिया जाना उचित रहेगा। सभी अभियन्तागण जो लोकनिर्माण
विभाग अलीगढ़ में कार्यरत थे, ने
अपनी सहमति दे दी और श्री नीरजजी तथा शैल चतुर्वेदी जी से वार्ता करके 30 नवम्बर
1983 की तिथि निर्धारित की। उत्तर भारत के तत्कालीन कवि यथा लोकप्रिय कुंवर बैचेन, डॉ.
शशि तिवारी, उदय प्रताप को भी कवि सम्मेलन में भाग लेने हेतु आमंत्रित किया। नीरज
जी प्राय बाहर कार्यक्रमों में व्यस्त रहते थे। घर जाने पर उनसे भेंट न हो पाती थी
तो डॉ. रवीन्द्र भ्रमर के घर की ओर चला जाता था। उनसे हिन्दी,
कविता पर घण्टों वार्ता होती रहती थी। बहुत ही
ज्ञान प्राप्त होता था। उनसे वार्ता करने से एक मीटिंग में उनसे तेवरी नाम [उभरते
हुए नाम] पर चर्चा की तो उन्होंने तेवरी विधा को जन-जन के आक्रोश को समाहित किये
हुए कुछ कर गुजरने का संदेश देने वाली विचारधारा बताया,
यहाँ तक कि उन्होंने एक साक्षात्कार में तेवरी को ‘शंकर
के तृतीय नेत्र’ की संज्ञा भी दी। किन्तु यह भी आगाह कर दिया कि भविष्य में
तेवरीकारों को ग़ज़लकारों के विरोध का सामना भी करना पडे़गा।
आचार्य रवीन्द्र भ्रमर के आशीर्वाद तथा
रमेशराज का सहयोग पाकर सन् 1972 से छूटा हुआ लेखनक्रम कुछ-कुछ प्राप्त हो गया | मैंने
सन् 1975 से अपने आप को तेवरी नामक विधा की जंजीरों में जकड़ लिया है। यदा-कदा
दो-चार टूटे-फूटे शब्द जोड़ लेने का साहस कर बैठता हूँ। सन् 1985 में एक स्वतंत्र
संग्रह ‘एक प्रहार लगातार’
प्रकाशित हुआ। किसी ईर्षालु ने कोई खुराफात कर दी
तथा कथित एल.आई.यू. के इन्सपेक्टर व दो व्यक्ति रमेशराज के घर आकर बोले कि इस
संग्रह में एक जगह व्यवस्था विरोध शब्द छपा है। यह पुस्तक जब्त की जा सकती है।
उनको पुलिसिया अन्दाज में धमकाया भी। किन्तु यह जब्त नहीं हो सकी है। अब तक
रमेशराज की हिम्मत पस्त नहीं हुई। वे बराबर इसी प्रकार का प्रकाशन जारी रखे हुए हैं
। रमेशराज एक ऐसे जुझारू तथा लोकप्रिय जनकवि की सन्तान हैं जो अपने जीवनकाल में ब्रजमण्डल
में प्रचलित जिकड़ी रसिया विधा के पुरोधा थे। उनके पिता श्रीरामचरन गुप्त
तेवरीपक्ष त्रैमासिक के प्रथम सरंक्षक के रूप में सर्वप्रथम आगे आये | उनके पिता
का ही प्रभाव था कि रमेशराज अलीगढ़ के गंगाजमुनी वातावरण में,
गीत-ग़ज़ल, बाल
कविता के साथ-साथ समीक्षा के क्षेत्र में भी एक सशक्त नाम बनकर उभरे हैं। प्रथम
द्वितीय- चतुर्थ, पष्ठम
अष्ठम पंक्तियों में तुकान्त लेकर लिखी-जाने वाली हर रचना को ग़ज़ल कहने को आतुर
रहे तथाकथित ग़ज़लकारों की ग़ज़ल के कथ्य तथा शिल्प पर बेवाक टिप्पणी करने की अटूट
क्षमता है रमेशराज में। साहित्प में रस की निष्पत्ति पर छपे उनके संग्रह ‘विरोधरस’
ने रसों के रूपों पर प्रभावशाली लेखनी चलाई है।
‘विरोधरस’
को लेकर एक नए रस की सार्थकता पर प्रकाश डाला है,
इस शोधपरक पुस्तक पर कई विद्वानों ने अपने-अपने
स्तर से समर्थन किया है। लम्बी तेवरियाँ ‘दे
लंका में आग’ तथा ‘जै
कन्हैयालाल की’ न केवल
कुव्यवस्था पर करारा व्यंग हैं, बल्कि नए
समाज की रचना करने के लिए शाश्वत प्रयास कही जाएंगी। अनेक विरोधों के बावजूद
रमेशराज अथक तथा निर्भीक भूमिका निभाते हुए आज भी अपने अभीष्ट पथ पर चल रहे हैं। वे
अपनी सटीक दलीलों, लेखों के
माध्यम से साहित्य में चापलूसी, विदूषकों,
फूहड़ अभिव्यजनाओं पर सार्थक प्रहार करते हुए लोलुप
साहित्यकारों को समय-समय पर सचेत करते आ रहे है। रमेशराज जी का स्वाभिमानी व्यक्तित्व
भी विशिष्टिता लिए हुए है। अपने सीमित साधनों, व्यक्तिगत
वचत के माध्यम से ही वे तेवरीपक्ष [त्रैमा] तथा अन्य प्रकाशन करते चले आ रहे हैं।
विज्ञापन या किसी अन्य सहायता हेतु कभी भी उन्होंने किसी विज्ञापनदाता,
अधिकारी या संस्था या नेता के आगे-पीछे चक्कर नहीं लगाए तथा न ही कभी हाथ फैलाया है।
No comments:
Post a Comment